संक्षिप्त परिचय
कथक उत्तर भारत में प्रचलित शास्त्रीय नृत्य शैली है। कथक शब्द की उत्पत्ति कथा से हुई है। कथक की परंपरा प्राचीन है। महाभारत तथा नाट्य शास्त्र में भी कत्थक शब्द मिलता है। पाली शब्दकोष में कथको शब्द का प्रयोग एक उपदेशक के लिए किया गया है। संगीत रत्नाकर के नृत्याध्याय में जो तेरहवी शताब्दी का ग्रन्थ है कथक शब्द का उल्लेख है। प्राचीन समय में कथावाचक मंदिरों में पौराणिक कथाएँ सुनाया करते थे। कथा के साथ कीर्तन भी होता था जिसपे नट लोग नृत्य प्रस्तुत किया करते थे। समय के साथ नट जाति के लोगों में कुछ बुराइयां आ जाने के कारण इनका समाज से बहिष्कार कर दिया गया। जीविकोपार्जन के लिए इन लोगों ने घूम घूम कर कथा कहना एवं नृत्य करना आरम्भ किया। इन्हें ही बाद में कत्थक या कथक के रूप में जाना गया। चुकि ये लोग नृत्य के सिद्धांतों से परिचित थे तथा भगवान् कृष्ण की लीलाओं से सम्बंधित प्रसंगों पर नृत्य प्रस्तुत किया करते थे अतः भक्त समुदाय से उन्हें यश एवं धन दोनों की प्राप्ति होती रही।
कथक का इतिहास
कथक के इतिहास को समझने के लिए दशवीं एवं ग्यारहवीं शती के पहले का इतिहास देखना आवश्यक नहीं है क्योंकि तब तक देश में नृत्य कला की एक सामान्य शैली ही प्रचलित थी। मंदिरों के प्रांगण की मूर्तियाँ इस बात का प्रमाण हैं कि पंद्रहवीं तथा सोलहवीं शती तक नृत्य मंदिरों तक सीमित रहा। मुस्लिम शासकों के आगमन के साथ नृत्य दरबारों में आ गया। सोलहवीं से अट्ठारहवीं शती तक मिलने वाली मूर्तियों में नृत्य से सम्बंधित कोई महत्तवपूर्ण प्रमाण नहीं हैं किन्तु कुछ चित्र नृत्य से सम्बंधित प्रमाण उपस्थित करते हैं जिससे नृत्य के उस स्वरूप का पता चलता है जो अंततः कथक शैली में परिवर्तित हुआ।
सत्रहवीं शती के चित्रों के माध्यम से यह पता चलता है की उस समय चूड़ीदार पायजामा नृत्य की एक मानक वेशभूषा के रूप में प्रयुक्त होने लगा था। उस स्थिति में भी जब नर्तकी को लहंगा पहने दिखाया गया है चूड़ीदार स्पष्ट रूप से दिखाई देता है क्योंकि हमेशा लहंगे को पारदर्शी दर्शाया गया है। घुँघरू जो मूर्तियों में बहुत समय तक नहीं दीखता था वह इस काल के चित्रों में सामान्य हो गया।
अट्ठारहवीं शती के पहले स्त्रियों को मृदंग एवं मंजीरे की संगत पर नृत्य करते हुए दिखाया गया है। नृत्य के साथ खड़ी मुद्रा में एवं गायन के साथ बैठी मुद्रा में। इस काल में अर्धमंडली स्थिति के प्रति आसक्ति काम दिखती है एवं नर्तकी सीधी खड़ी मुद्रा के साथ सामने आती है। बाहर की तरफ झुके हुए घुटने जो की पंद्रहवीं शती तक की मूर्तियों एवं मध्यकालीन चित्रों की विशेषता थी उसके स्थान पर नर्तकी ने सीधी खड़ी मुद्रा को अपनाया जिसे हम नृत्य की इस शैली विकसित होने का मत्त्वपूर्ण प्रमाण मान सकते हैं। मूर्तियों एवं चित्रों के माध्यम से प्राप्त प्रमाणों के पश्चात इस शैली के विकास एवं विस्तार को समझना भी आवश्यक है।
कथक का विकास
मंदिरों में प्रवाहित होने वाली नृत्य परंपरा जब मुस्लिमों के शासन काल में दरबारों में आयी समय दो अलग स्थानों पर अपनी विशिष्ट छाप के साथ इसका विस्तार हुआ। एक का प्रतिनिधित्व राजस्थान के हिन्दू शासकों के दरबार खासतौर से जयपुर दरबार ने किया। दूसरी धारा दिल्ली आगरा और लखनऊ के मुस्लिम शासकों के संरक्षण में पल्लवित हुई। दरबारी आश्रय में कथक शैली ने अपनी तकनीक का बहुत विकास किया और एक परिष्कृत नृत्य शैली के रूप में सामने आयी।
राजस्थान में कथक के नृत्त पक्ष को बहुत महत्त्व मिला फलस्वरूप लयकारी के चमत्कार एवं तकनीकी खूबी देखने को मिलती है। वहीं मुस्लिम शासक मात्र लयकारी के चमत्कार से संतुष्ट नहीं थे या कहें कि बहुत आकर्षित नहीं थे फलतः भाव पक्ष को प्रधानता मिली और इस प्रकार कथक के दो घराने पहचाने जाने लगे एक जयपुर घराना और दूसरा लखनऊ घराना।
अवध के अंतिम नवाब, नवाब वाज़िद अली शाह के समय लखनऊ घराना अस्तित्व में आया। इस घराने की नीव श्री ठाकुर प्रसाद जी द्वारा डाली गयी थी, जिसका परिष्कार उनके दो पुत्रों श्री कालका प्रसाद एवं श्री बिंदादीन महाराज के हाथों हुआ। ही उच्चकोटि के नर्तक एवं रचनाकार थे एवं इन्हें नवाब वाज़िद अली शाह का आश्रय प्राप्त था। इन दो घरानो के अतिरिक्त कत्थक का बनारस घराना भी माना जाता है। ऐसा मानना है कि बीकानेर के श्री जानकी प्रसाद बनारस आकर बस गए थे और उन्होंने ही की नीव डाली। यह घराना भी ले के काम पर ज़ोर डालता है।
20 वीं शती का उत्तरार्ध आते-आते उत्तर भारत के अधिकाँश भाग में कथक का प्रचार-प्रसार हुआ। उत्तर प्रदेश और राजस्थान के अतिरिक्त पंजाब, हरियाणा, बिहार एवं मध्य प्रदेश में भी यह नृत्य प्रचारित हुआ। इसके अतिरिक्त रामपुर, भोपाल, उदयपुर, जोधपुर, अलवर, किशनगढ़, ग्वालियर आदि रियासतों में भी कथक का खूब विकास हुआ।
काफी समय तक कथक मुख्या रूप से पुरुष कलाकारों के हाथो में ही पला, हालाँकि आज निःसंदेह कथक की कई ऐसी महिला कलाकार हैं जिन्होंने पुरुषों की बराबरी में ख्याति अर्जित की है और कथक शैली के प्रचार-प्रसार एवं विकास में बहुमूल्य योगदान दिया है।
कथक का रंगमंच
कथक में भी अन्य नृत्य शैलियों की भांति नृत्य तथा नृत्त पक्ष विद्यमान हैं। नर्तक अथवा नर्तकी का मंच पर प्रथम आविर्भाव प्रायः आमद के साथ होता है। मंच पर आने के बाद गुरु एवं ईश्वर की वंदना की जाती है। वंदना के पश्चात नृत्य को आगे बढ़ाया जाता है। प्रायः भगवान् शिव अथवा गणेश वंदना की जाती है तथा शिव परण गणेश परण प्रस्तुत किया जाता है। मुस्लिम शासन काल में नृत्य चुकी प्रस्तुत होने लगा था अतः बादशाह या नवाब का अभिवादन करने के लिए सलामी का टुकड़ा प्रस्तुत किया जाता था। सलामी को नमस्कार भी कहते हैं आज भी कई कलाकारों के द्वारा इसका प्रस्तुतीकरण किया जाता है।
कथक में नृत्त पक्ष के अंतर्गत तोड़े, टुकड़े, परण, आमद, प्रमेलु, लड़ी, पलटा, एवं तत्कार आदि का प्रदर्शन किया जाता है। नृत्य पक्ष के अंतर्गत वंदना, गतभाव, कवित्त, ठुमरी, भजन, तराना इत्यादि प्रस्तुत किया जाता है। तराना में यदि गीत के बोल नहीं हैं तो यह नृत्त के अंतर्गत आएगा।
वेशभूषा
कथक में दो प्रकार की वेशभूषा देखने को मिलती है हिन्दू एवं मुग़ल
हिन्दू वेशभूषा
हिन्दू पहनावे में नर्तकी लहंगा, ब्लाउज़ तथा चुन्नी पहनती हैं। माथे पर बिंदी, मांगटीका, कान, नाक तथा गले में आभूषण पहनती है। हाथो में चूड़ियाँ, कंगन तथा पैरों में घुंघरू पहनते हैं। हथेलियों तथा पैरों में आलता या मेहंदी लगाई जाती है। बालों में चोटी या जूड़ा बनाते हैं तथा इसे फूलों से सजाया जाता है।
पुरुष नर्तक धोती-कुर्ता पहनते हैं। कभी-कभी केवल धोती पहनकर धड़ भाग खुला रखते हैं। कमर पर बेल्ट या रेशमी कपड़ा लपेट कर बाँधा जाता है। माथे पर तिलक, गले में माला, कानो में कुण्डल, हाथ में कड़ा तथा पैरो में घुँघरू पहनते हैं।
मुग़ल वेषभूषा
इस वेशभूषा में स्त्रियाँ चूड़ीदार पायजामा तथा पिंडली तक की लम्बाई का घेरदार फ्रॉकनुमा वस्त्र (अनारकली सूट) पहनती हैं। सिर पर चुन्नी ओढ़ी जाती है। सिर पर मांगटीके के स्थान पर एक ओर झूमर लगाया जाता है। पुराने ज़माने में सिर पर पंख वाली टोपी तथा ज़रीदार जैकेट भी पहना जाता था जिसका प्रचलन अब कम हो गया है। अन्य आभूषण सामान्य रूप से धारण किये जाते हैं। पैरों में घुँघरू आवश्यक रूप से पहना जाता है।
पुरुष नर्तक चूड़ीदार पायजामा तथा कुर्ता /बगलबंदी पहनते हैं।
संगीत
कथक नृत्य के साथ उत्तर भारतीय संगीत प्रयुक्त होता है। सांगत वाद्यों में गायक के साथ सारंगी या हारमोनियम बजाय जाता है। ताल वाद्य के रूप में मुख्यतः तबला का प्रयोग देखने को मिलता है हालाँकि पखावज द्वारा भी कई स्थानों पर संगत की जाती है।
Very well written in short content..
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