Dhobiya Naach, folk dance of Uttar Pradesh

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उत्तर प्रदेश की लोक कलाओं में "धोबिया नाच "

हमारा देश विविधताओं का देश है। यहाँ एक बड़ी मशहूर कहावत है "कोस कोस पर पानी बदले चार कोस पर बानी" अर्थात यहाँ पर ३. १२ किलोमीटर के बाद पानी बदल जाता है तथा १२.४८ किमी के बाद भाषा बदल जाती है। इस आधार पर आप बेहतर अंदाज़ा लगा सकते है, की भारत वर्ष कितनी विविधताओं को अपने में समाहित किये है,लेकिन इसके मूल में सिर्फ और सिर्फ भारतीयता है। इन सारी विभिन्नताओं में भी पास -पड़ोस में भिन्नतावों के बावजूद काफी कुछ समानताएं भी पायी जाती है। इन्ही कुछ भिन्नतावों एवं कुछ समानतावो के आधार पर देश को विभिन्न राज्यों में विभाजित किया गया है। अगर राज्यों के आधार पर देखा जाय  तो हर राज्य की अपनी विशेष सांस्कृतिक, सामाजिक एवं भाषागत पहचान है।

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इसी प्रकार विभिन्न राज्यों की अपनी विशेष लोक विधाएँ हैं , जिनसे उन राज्यों की पहचान है।  जैसे  राजस्थान का घूमर , ख्याल , पंजाब का भंगड़ा , गिद्धा , गुजरात का डांडिया , महाराष्ट्र का लावणी आदि लोक विधाएँ हैं , जिनसे उन राज्यों की पहचान भी है।  इसी प्रकार उत्तर प्रदेश में भी प्रदर्शन कलाओं में भी कई लोक विधाएँ हैं , जो इस राज्य की पहचान को स्थापित करती है। इसमें प्रमुख है , रामलीला , रासलीला, नौटंकी , स्वांग , भगत , बिरहा , चैती , कजरी , नागडा , धोबिया नाच आदि।  इन विधाओं में धोबिया नाच  वर्तमान समय  में  सबसे उपेक्षित विधा है ,आज यह अपने अस्तित्व को बचने के लिए संघर्ष कर रहा है, जबकि इसके पास सम्बृद्ध  साहित्य , संगीत एवं मिथको की परंपरा है। इस विधा की प्रदर्शन क्षमता भी जबरदस्त है।

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लोक कलाएं मानवीय संवेदना के साथ सहज स्फूर्त चेष्टाएँ हैं , जो मानव के सामाजिक ताने-बाने को इंसानियत और प्रेम के रेसे से पिरोता है।  लोक जनमानस की सहज अभिव्यक्ति का प्रतीक है।  लोक से ही गूढ़ तत्वों को ले कर हमारे समाज का बुद्धजीवी वर्ग उसे शास्त्रबद्ध कर शास्त्रकार हो गए , और इसी लोक को हेय दृष्टि से देखने लगे, इसकी सहजता, सरलता, निश्छलता और आडम्बरहीनता के गुड़ को गवारपन की संज्ञा देने लगे। जब की लोक का यही गुड़ एवं स्वभाव आनंद के आदि श्रोत है, जो ललित कलाओं की आत्मा है।  लोक में हर व्यक्ति माला के पुष्प की तरह एक-दूसरे से इंसानियत एवं प्रेम के धागे से गुथा रहता है। जिस प्रकार एक पुष्प माला नहीं बन सकता उसी प्रकार एक व्यक्ति लोक नहीं हो सकता। अतः बहुत्व या समष्टि ही लोक की आत्मा है।  एकत्व बोध जहाँ धूमिल पड़ जाये , सामान्य जनमानस की सामूहिकता जहां प्रबल हो वही लोक है। इस लिए लोक में सबका , सबके लिए और सबकुछ मिलता है।

भारतीय सन्दर्भ में 'लोक' शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के 'लोक दर्शने' धातु में अन लगने से लोक शब्द बना है , जिसका अर्थ होता है , देखना।  इस प्रकार लोक शब्द का  मूल अर्थ है 'देखने वाला'। ऋग्वेद के पुरुष-शुक्त में 'लोक' शब्द जीव एवं स्थान दोनों के लिए प्रयोग किया गया है। जबकि नाट्यशास्त्र में लोक शब्द का प्रयोग सामान्य-जन के सन्दर्भ में किया गया है।

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लोक के अर्थ में भ्रांतियां लाने का काम  अंग्रेजी के फोक (Folk ) ने किया।  फोक की उत्पत्ति जर्मन शब्द वोक (Volk ) से मानी जाती है। फोक या फोकलोर शब्द के प्रचलन का श्रेय विलियम जॉन थॉमस  को जाता है। ब्रिटिश संग्रहालय लन्दन के संग्रहालय संरक्षक सर हेनरी एलिन ने १८१३ में 'पॉपुलर एंटीक्विटीज़ ' नाम से कुछ सामग्रियों का संकलन किया था, कुछ सालो तक यह शब्द प्रचलन में आ गया था। फिर  १८४६ में विलियम जॉन थॉमस ने अपने एक आलेख में ''पॉपुलर एंटीक्विटीज़" के बदले "फोकलोर" (Folklor ) शब्द के प्रयोग का सुझाव दिया। मान्यता है कि थॉमस ने जर्मन भाषा के शब्द "वोक्सुन्डे" से प्रेरित हो कर, अंग्रेजी अनुवाद फोकलोर प्रस्तुत किया था। १८७८ में नृविज्ञानी ई.वी. टेलर ने 'फोकलोर सोसाइटी' की स्थापना की,  इसके बाद पुरे यूरोप में इस शब्द का प्रचलन बढ़ गया। जर्मन भाषा में वॉक शब्द का अर्थ "गँवारू लोग"  है, और सुन्डे का अर्थ ज्ञान या  समाचार।

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इस प्रकार जर्मनी से निकला वॉक (गँवारू लोग )  अंग्रेजी में फोक हुआ,  भारत में अंग्रेज़ो के आने के बाद जिस प्रकार यहाँ के लोग अंग्रेजी भाषा, साहित्य, जीवन शैली के प्रति आकर्षित हो कर अंग्रेज़ियत को अपनाने लगे, उसी तरह हमारी कलाएं भी प्रभावित हुयी। इसमें संभ्रांत या विशिष्ट  लोगों की कलाएं जिसे शास्त्रीय कहते थे, वो क्लासिकल (classical  )  हो गयी  एवं  यहाँ  के सामान्य जान (श्रमिक वर्ग  या  समाज के निचले तबके के लोगो तथा वनवासियों ) की कला को  लोक कला कहा जाता है, वो  अंग्रेजी का फोक हो गया। जब की हमारे लोक और अंग्रेजी के फोक में बहुत अंतर है। अंग्रेज़ो के फोक को सीधे तौर पर गंवार या गवयीं लोग की कला कहा जाता है, जो बहुत अस्त-व्यस्त होती है, जबकि हमारे लोक की हर विधा का अपना एक मुकम्मल शास्त्र है। उदाहरण स्वरूप अगर  उत्तर प्रदेश की ही लोक लोकविधाओं की बार करें तो, इसमें नौटंकी, बिरहा, आल्हा  कजरी, चैती, धोबिया नाच आदि कई विधाएँ हैं, जिसमें हर विधाओं का अपना ,एक विधि-विधान है, व्याकरण है, जिससे इनकी विशेष पहचान बनती है।

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भारतीय समाज के  सामाजिकता की जड़ तो लोक के धरातल में जकड़ा हुआ है, परन्तु इसकी अंकुरित शाखाएं ज्ञान के आडम्बर और दिखावे के प्रकाश में अपने जड़ों को भूलता चला गया, जिससे समाज पुष्पित एवं पल्लवित तो हुआ, परन्तु इसमें इंसानियत, प्रेम एवं सामूहिकता के बजाय, एकात्मकता विकसित हो गया। इसमें इंसान भीड़ में रहकर भी अकेला हो गया।  बाजारवाद के इस दौर में व्यक्ति सबकुछ खरीदने के चक्कर में, वह खुद ही बिकता चला गया। जिससे जीवन के हर महत्वपूर्ण सरोकारों का अर्थ एवं उद्देश्य बदल गया। मसलन, शिक्षा का मापदंड रोज़गार हो गया , तथा संस्कार का मापदंड स्वार्थ हो गया, अर्थात शिक्षा सिर्फ रोज़गार के लिए एवं संस्कार सिर्फ स्वार्थ सिद्धि के लिए।  अब ऐसे माहौल में हमारा पढ़ा-लिखा समाज सहज ,स्वाभाविक आनंद , प्रेम एवं ललित अनुभूतियों से दूर होता चला गया।

अतः व्यक्ति के अंदर लोक स्वाभाव, इंसानियत, प्रेम और सद्भाव की जगह मशीनी या डिजिटल चेष्टाएँ प्रवेश कर गयी, जिसमें  एक-दूसरे के प्रति प्रतिस्पर्धा में सबके  अंतर मन में ईर्ष्या एवं नफ़रत के सॉफ्टवेयर विकसित हो गए। इस तरह हमारी सभी लोक कलाएं विलुप्ति के कगार पर पहुंच गयी। इसमें धोबिया नाच भी अपने स्तित्व  को बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है।

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लोक कलाओं के साथ ही मानव सभ्यता के विकास की नीव पड़ी।  मानव की प्रारंभिक कलाएं उसकी श्रम-मूलक चेष्टाओं से ही अविकसित हुई है।  मानव की अपनी मानसिक दशाएं, रमण मूलक उत्तेजना के क्षण, भूख-प्यास, सामूहिकता की भावना, विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण, उम्र के उतर-चढाव और जैविक परिवर्तन भी लोक कलाओं के लिए प्रेरणा श्रोर रहते है।  लोक कलाएं जीवन के अंग-प्रत्यंग से जुडी रहती है। 

सामान्यतः लोक कलाएं श्रमिक वर्ग की ही आविष्कारित विधा है। यह वर्ग अपने जीवन के लगभग हर क्षण पूरी ज़िंदादिली से जीता है, जिसके परिणाम स्वरुप इनके जीवन से सम्बंधित लगभग हर घटना से कला की कोई न कोई विधा मुखरित होती है।  जैसे यह वर्ग जब  शारीरिक  श्रम करता है, तो इस दौरान  मेहनत से उपजे थकान को हल्का करने के लिए उस काम से सम्बंधित शब्दों को जोड़ कर या फिर पारिवारिक-सामाजिक कहानी बना कर, उसके शब्दों को गीतों में पिरो कर, उस काम में किये गए विभिन्न क्रिया-कलापों से उत्पन्न  लय में निबद्ध कर गाने लगते हैं। इससे उनकी थकान कम हो जाती है, और काम भी जल्दी हो जाता है। ( इसे आप पेड़ काटना, नव चलाना, कृषि कार्य के दौरान, कपडा धोना आदि कार्यों के दौरान कई लोक विधाओं के विकास को देख सकते हैं।  इन्ही में से विकसित धोबिया नाच की विस्तृत चर्चा हम कर ही रहे हैं। इसी प्रकार तीज, त्यौहार, जन्म, शादी, मुंडन आदि सभी अवसरों पर इनकी कोई न कोई विधा मुखरित होती है। 

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शारीरिक श्रम के दौरान विकसित होने वाली लोक शैलियों में गीत-संगीत की प्रवित्ति उस कार्य विशेष के क्रिया- कलाप से उत्पन्न होने ध्वनियों एवं शारीरिक क्रियाओं के लक्षण समाहित होते हैं।  जैसे धोबीया नाच में ताल हेतु बजने वाले मृदंग की ध्वनि, धोबियों द्वारा कपड़ा धोते समय जब भींगे कपडे को पानी की सतह या पत्थर पर पटकते है, तो उससे उत्पन्न होने वाली ध्वनि "छ-पक्, छ-पक्" से मिलती है।

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उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र की प्रचालीत लोक कलाओं में धोबिया नचा एक प्रमुख लोक परंपरा है।  इस कला का निर्वहन धोबी समुदाय के लोग करते हैं, इस लिए इसका नाम धोबिया नाच पड़ा।  



















  

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