kathakali dance : Introduction, technique, makeup and costume

कथकली भारत के दक्षिण-पश्चिम में स्थित केरल की मौलिक शास्त्रीय नृत्य-नाटिका है। "कथकली"  शब्द, दो शब्दों "कथा" एवं "कलि" से मिलकर बना है। संस्कृत में कथा का अर्थ है कहानी तथा "कलि" द्रविड़ भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है खेल। इस प्रकार कथा बताने वाला खेल कथकली है। 


केरल में नृत्य का प्राचीनतम रूप मंदिरों में होने वाले धार्मिक कृत्यों से जुड़ा हुआ है। कथकली में पहनी जाने वाली वेशभूषा इन धार्मिक कृत्यों में पहनी जाने वाली वेशभूषा से समानता रखती है। फिर भी कथकली में प्रयुक्त होने वाले मुकुट, अलङ्कार और वेशभूषा इस प्राचीन वेशभूषा से अधिक परिष्कृत और कलात्मक होती है। इसके शिक्षण के दौरान अभी भी युद्धकला के स्टेप्स सिखाये जाते हैं। धार्मिक नृत्यों के अतिरिक्त केरल में संस्कृत नाटकों को प्रस्तुत करने हेतु एक विधा का विकास हुआ जो "कुड़िआट्टम" नाम से जानी गयी और इसी से कथकली की उत्पत्ति मानी जाती है।  

कथकली की उत्पत्ति 

18वीं शती में कालीकट के जामोरिन राजाओं में से एक ने नृत्य के लिए एक काव्य की रचना की और उसे "कृष्ण-नाटकम" कहा। इसका अभिनय गुरूवायूर के प्रसिद्द कृष्ण मंदिर में किया गया। इसके पश्चात इसका प्रदर्शन राजाओं की इच्छानुसार होने लगा और इसे कृष्णाट्टम नाम से जाना जाने लगा। उन्हीं के सम-सामयिक कोट्टारकर के शाही परिवार में से में से एक ने कृष्णाट्टम को अपने दरबार में प्रस्तुत करवाने की इच्छा व्यक्त की किन्तु जमोरिन राजाओं ने इस शाही निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया। कहा जाता है कि कोट्टारकर के राजकुमार ने रामायण महाकाव्य को लेकर अनेक नाटकों की रचना की, जिसे "राम-नाटम" नाम दिया। ये रचना जमोरिन राजाओं की चुनौती के प्रत्युत्तर स्वरुप की गयी थी। बाद में कोट्टायम के राजा ने महाभारत से कथाएं लेकर अनेक सुन्दर नृत्य-नाटिकाओं की रचना की। चूँकि ये कहानियां कृष्ण से सम्बंधित थीं अतः राम-नाटम नाम सटीक न बैठने से "कथकली" नाम प्रचार में आया। 

केरल में प्रचलित अन्य शास्त्रीय नृत्य शैलियों की तरह कथकली का मूल भी मंदिरों से जुड़ा हुआ था। मंदिरों में ही इसका प्रदर्शन किया जाता था। कथकली किसी भी ग्रामीण अंचल में या किसी भी आँगन में, खुले मैदान आदि में प्रस्तुत किया जा सकता है जंहा कुछ व्यक्ति बैठ सकें और इसका आनंद उठा सकें इसके लिए अलग से मंच बनाने की आवश्यकता नहीं होती। समतल भूमि, करीब 100 स्क्वायर फ़ीट की जगह जंहा अभिनेता, गायक और वादक बैठ सकें पर्याप्त होती है। प्राचीन समय में प्रकाश व्यवस्था के लिए नारियल तेल में डूबी हुई बत्तियां जलाई जाती थी। वर्तमान समय में भी कथकली का प्रदर्शन मंदिरों के प्रांगण में होता है लेकिन अब यह मंदिर के बाहर मंच पर भी प्रदर्शित किया जाता है। जबकि कृष्णाट्टम और कुड़िआट्टम मंदिर के प्रांगण के बहार करने की प्रथा नहीं है। 

इस शैली में अभिनेता स्वयं मंच पर कुछ नहीं बोलता, गीतों द्वारा ही कहानी कही जाती है। ये गीत अधिकतर संवाद के रूप में  होते हैं जिन्हें पार्श्व गायक गाते हैं। अभिनेता गाये जाने वाले गीत के शब्दों और भावों को अपनी आंगिक क्रियाओं (विशिष्ट हस्त-मुद्राओं एवं मुखाभिनय) के द्वारा व्यक्त करता है। 

वेशभूषा एवं मेकअप 



भारत में प्रचलित अन्य सभी नृत्य शैलियों की अपेक्षा कथकली की वेशभूषा एवं मेकअप अत्यंत विशिष्ट एवं विस्तृत है। मेकअप होते समय अभिनेता ज़मीन पर लेट जाते हैं और मेकअप करने वाला व्यक्ति उनके चेहरे का मेकअप करता है। इसकी विशेषता यह है की इसमें प्रत्येक पात्र के चरित्र के अनुसार उनका मेकअप भिन्न होता है। ये मेकअप पच्च, कत्ति, ताड़ि, करि, मिनुक्कु नाम से जाने जाते हैं। 

1. पच्च : 



पौराणिक पात्र कई श्रेणियों में बांटे जाते हैं। धीरोदात्त नायक के लिए जो की बहुत दयावान, एवं श्रेष्ठ गुणों वाला माना  जाता है जैसे कि नल, युधिष्ठिर आदि, पच्च मेकअप किया जाता है। पच्च मेकअप में हरा रंग प्रयुक्त होता है। इन पा त्रों को मुकुट भी पहनाया जाता है। पच्च के अंतर्गत ही राम, कृष्ण आदि भी आते हैं जो की अवतार माने जाते हैं। इनका मेकअप सामान होता है किन्तु मुकुट का आकार अन्य से अलग कलश के आकार का होता है जिसके ऊपर मोरपंख लगा होता है। यह मुकुट मुंडी के नाम से जाना जाता है। 

2. कत्ति :

कत्ति का मेकअप भी पच्च की तरह हरा ही होता है किन्तु साथ में गालों पर दोनों तरफ लाल रंग से चाक़ू जैसी आकृति बनी होती है। इसके अतिरिक्त नाक के छोर एवं माथे पर एक-एक बाल चिपकाते हैं। ऐसे पात्रों के स्वभाव में स्थिरता नहीं होती और वे आसानी से दुष्टता के मार्ग पे आ जाते हैं। तथा अपने लक्ष्य की प्राप्ति करने हेतु अनुचित साधनों का प्रयोग करने में भी हिचकते नहीं हैं। रावण, दुर्योधन, कंस या कोई भी खलनायक इस वेश द्वारा पहचाना जाता है। कत्ति मेकअप बुराई के साथ-साथ राजस गुणों का समावेश करता है। यह बात ध्यान देने योग्य है की जंहा पच्च पात्र मंच पर एक शब्द भी नहीं बोलते वहीं कत्ति पात्र आवश्यकतानुसार शोर या विचित्र आवाज़े निकाल सकते हैं। 

3. ताडि  :

जिस वेशभूषा को देखकर विकरालता अथवा दुष्टता का बोध होता है वह ताड़ि नाम से जाना जाता है। ताडि का अर्थ है दाढ़ी, जिसके तीन प्रकार हैं। जिसमे तीन अलग-अलग स्तर की दुष्टता पता चलती है। ये तीन प्रकार हैं - लाल, सफ़ेद व काली दाढ़ी। 

लाल दाढ़ी - इस प्रकार में चेहरा भयानक गहरे रंगों से रंगा जाता है। इनके मुकुट कत्ति वेश वालों से ज्यादा बड़े होते हैं। बकासुर जैसे राक्षस या दुःशासन जैसे व्यक्ति जो की अत्यंत दुष्ट प्रकृति के होते हैं और भलाई सोचने की जिनकी क्षमता ही नहीं होती, ये सदा विनाशकारी प्रवृत्तियों से जुड़े रहते हैं। ऐसे पत्रों को लाल दाढ़ी दी जाती है। इस मेकअप में भी माथे और नाक पर एक-एक बाल चिपकाया जाता है। इनकी चुट्टी भी पच्च मेकअप से अलग होती है। इस मेकअप को "चुवन्न ताडि" कहते हैं। 

सफ़ेद दाढ़ी - यह मेकअप बंदरों के लिए प्रयुक्त होता है। हिन्दू धर्म में हनुमान का एक विशिष्ट स्थान है इसलिए सामान्य बंदरों की अपेक्षा हनुमान का मेकअप अलग किया जाता है। हनुमान का मुकुट "वत्त मुंडी" कहलाता है। यह मेकअप "वेल्ल ताडि" नाम से भी जाना जाता है। 

काली दाढ़ी - यह भी दुष्ट स्वाभाव के पात्रों के लिए है। इसका मेकअप चुवन्न ताडि की तरह ही होता है केवल दाढ़ी का रंग काला होता है। यह फर्क उस पात्र में चालाकी या पैतरेबाजी की बुद्धि का सूचक है। इस तरह के पात्र का उदाहरण "नल चरित" का कलि है।   

4. करि 

इस मेकअप में चेहरा पूरा काला रंगा जाता है। यह सबसे भिन्न आदिम जातियों के स्त्री-पुरुषों को दिखाने के लिए प्रयुक्त होता है। ये पात्र भी गुर्राने जैसी आवाज़ निकाल सकते हैं। 

5. मिनुक्कु 

सात्विक पात्र जैसे कि स्त्रियां, ऋषि एवं ब्राह्मण वर्ग इस वेश को धारण करते हैं। अन्य पात्रों की तरह इनके कपडे विशिष्ट न होकर साधारण होते हैं। सफ़ेद चुट्टी भी इनके चेहरे पर नहीं लगायी जाती है। चेहरे को नारंगी एवं पीले रंग के मिश्रण से रंगते हैं। 

पुराने ज़माने में चावल के आटे और चूने के मिश्रण से चुट्टी तैयार की जाती थी और इस तरह की चुट्टी तैयार करने में प्रत्येक पात्र को तीन से चार घंटे का समय लग जाता था। आजकल समय बचने के लिए कागज़ की चुट्टी लगायी जाती है। 

कथकलि के कलाकारों के चहरे के भव्य मेकअप के साथ मिलान करने के लिए आँख की पुतलियों को लाल किया जाता है। ऐसा न करने पर चेहरा अत्यंत निर्जीव सा लगता है। आँखों को लाल करने के लिए नीचे की पलको में "चुंडैपु" डाला जाता है। 

कथकली में पहने जाने वाले मुकुट एवं आभूषण एक विशेष प्रकार की लकड़ी से बनाये जाते हैं जिन्हें बाद में चमकीले या सुनहरे रंगों से रंगा जाता है। ये मोर एवं मधुमक्खी के पंखों से सजाये जाते हैं। 

संगीत 

पुराने ज़माने में कथकलि में जो संगीत प्रयुक्त होता था उसे सोपान संगीत कहा जाता था। परन्तु अब उसे कर्नाटक संगीत पद्धति में ही गाया जाता है। इसमें प्रयुक्त 5 तालों के नाम निम्नलिखित हैं। 

1. चेंपद     2. चेंपा     3. पंचरी     4. अठंथ      5. मुरि अठन्थ  

कथकलि में चेंडा एवं मद्दलम नामक वाद्यों का प्रयोग होता है। चेंडा की आवाज़ बहुत तीव्र होती है जिसे 4 -5 मील की दूरी से भी सुना जा सकता है। इन वाद्यों को बजाने के लिए बहुत तैयारी की आवश्यकता होती है। 

प्रस्तुतीकरण 

कथकलि की शुरुआत "तोडयम" से होती है। जिसके बाद पुरप्पाड प्रस्तुत किया जाता है। इसके बाद "मेलप्पदम" किया जाता है। यह ऐसी रचना है जिसमे गायक एवं वादक को अपनी कुशलता का परिचय देने का अवसर मिलता है। इस अंश में गीत का चुनाव जयदेव के गीत-गोविन्द से ही होता है। इसके बाद का आइटम "पंदिजपदम" या "शृंगार पदम" होता है जिसे नायक प्रस्तुत करता है। इसके बाद ही मूल कथा शुरू होती है। कथकली शैली में एक कथा रात भर चलती है। 

कथकलि  का आधार ग्रन्थ "हस्त लक्षण दीपिका" है। भारत की अन्य नृत्य शैलियों के सामान ही एक समय इस शैली को भी नष्ट होने का भय था किन्तु महान कवि वल्तोल नारायण मेनन ने केरल कला मंडलम की स्थापना कर इस शैली को सुरक्षित रखने का सराहनीय प्रयास किया। इनका जितना योगदान इसे सुरक्षित करने में है उतना ही नए प्रयोग एवं परिमार्जन करने के अवसर प्रदान करने में भी है। श्री मणिमाधव चाक्यार, श्री चथुन्नी पणिक्कर, कलामंडलम कृष्णन नायर तथा कलामंडलम गोपी आदि इस शैली के प्रसिद्द कलाकार रहे हैं।   


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